tag:blogger.com,1999:blog-60267687270673974852024-03-14T07:50:37.297+05:30हसरतसंजअनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-6026768727067397485.post-52168863917555929812010-10-17T13:25:00.000+05:302022-01-30T18:01:59.607+05:30मैं और बचपन का वो इन्द्रधनुष<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_xI7yNT_FAQQ/TLq4BHlgBdI/AAAAAAAAApc/WPLYXjarLKc/s1600/Indradhanush.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 333px; height: 250px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_xI7yNT_FAQQ/TLq4BHlgBdI/AAAAAAAAApc/WPLYXjarLKc/s400/Indradhanush.jpg" border="0" alt="Indradhanush"id="BLOGGER_PHOTO_ID_5528933821906421202" /></a>बारिश बीतती तो आसमान उजला-उजला निखर आता । और तब, जब भी आसमान में इन्द्रधनुष को देखता तो जी करता कि इन साहब के कुछ रंग चुराकर पेंटिंग बनाऊँ । तमाम कोशिशों के बावजूद में असफल होता और इन्द्रधनुष मुँह चिढ़ाता सा प्रतीत होता । नानी कहती "अरे बुद्धू, उससे भी कोई रंग चुरा सकता है भला" । मैं नाहक ही पेंटिंग करने का प्रयत्न करता । मैं मासूम उड़ती चिड़िया को देखता, तो मन करता कि इसको पेंटिंग में उतार लूँ । कई बार प्रयत्न करता और हर दफा ही, कभी एक टाँग छोटी हो जाती तो कभी दूसरी लम्बी ।<br /><br />बचपन में अच्छी पेंटिंग ना कर पाने का दुःख मुझे हमेशा रहता । मेरा पसंदीदा विषय होते हुए भी, मैं उसे कभी अपने हाथों में नहीं उतार सका । और जब तब रूआसा हो जाता । तब नानी मुझे गोद में बिठाकर कहती "ईश्वर हर किसी को कुछ न कुछ हुनर अवश्य देता है । सबसे ज्यादा जरुरी है, उसकी बनायीं हुई सृष्टि को समझाना, उसे महसूस करना ।" <br /><br />बचपन बीता और साथ ही पेंटिंग का हुनर सीखने की मेरी ख़्वाहिश भी उसके साथ जाती रही । धीमे-धीमे बड़ा हुआ तो कुछ नयी ख्वाहिशों ने जन्म लिया । कुछ साथ रहीं, तो कुछ ने बीच रास्ते ही दम तोड़ दिया ।<br /><br />अपने बी.एस.सी. के अध्ययन के दिनों में, मैं घर पर ही गणित की ट्यूशन पढाया करता था । तमाम बच्चे सुबह-शाम ग्रुप में मुझसे पढने आया करते । अधिकतर दसवीं और बारहवीं के बच्चे हुआ करते । और सुबह-सुबह ही गली के मोड़ से चहल-पहल प्रारंभ हो जाती । सर जी नमस्ते, सर जी गुड मोर्निंग जैसे लफ्ज़ गली में सुनाई देते । बच्चे तो बच्चे, उनके माता-पिता भी सम्मान की दृष्टि से देखते ।<br /><br />उन्हीं सर्दियों के दिनों में, नानी का हमारे घर आना हुआ । जब सुबह-सुबह उठीं तो उन्हें वही आवाजें सुनाई दीं । तमाम बच्चों से उनकी बातें हुईं । और जब शाम को मैं बाज़ार गया तो वहाँ से नानी के लिए शौल लेकर आया । रात के वक़्त मैंने उन्हें वो शौल उढाई । कहने लगीं "बड़ा हो गया है, मेरा नन्हाँ सा पेंटर । तुझे याद है, तू बचपन में अच्छी पेंटिंग ना कर पाने पर दुखी होता था ।" उनकी बात पर मैं मुस्कुरा दिया । <br /><br />कहती थी ना मैं "ईश्वर सबको कोई न कोई हुनर देता है । तुझे गणित जैसे विषय में उन्होंने अच्छा बनाया और अब देख कितने बच्चे तुझसे पढने आते हैं । तुझे आदर मिलता है, उनका प्यार मिलता है । दुनिया में जो सबसे अधिक कीमती है, वो तुझे बिन माँगे मिल रहा है ।" <br /><br />नानी की बातें एक बार फिर मुझे बचपन के दिनों में खींच ले गयीं । जहाँ खुले आसमान के नीचे लेटा मैं, इन्द्रधनुष को देख, उसके रंगों से रश्क कर रहा हूँ । और वो अपनी जबान बाहर कर, अपने कानों पर हाथों को हिलाते हुए मुझे चिढ़ा रहा है....<br /><br />.<br />* चित्र गूगल सेअनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com7